Friday 8 May 2020


घर के बाहर बसंत के सभी चिन्ह दिखने लगे हैं और हम घरों में बन्द हैं। गिलहरी , कबूतर और चिड़िया तक उदास दिख रही हैं । सड़कें बाजार सब सूने। क्रोकस, डैफोडिल्स और कैमिलिया ने सिर तो उठा लिया है पर उनके ऊपर मंडराती तितलियों के रंग-बिरंगे पंख नहीं, बस फूलों को घेरती काली परछांइयाँ ही दिखती हैं , वाकई में यह कैसे वक्त में जी रहे हैं हम जब चारो तरफ पत्तों से झर रहे हैं लोग और लाखों इंतजार करती आंखें अपनों के बिना बंद होने को मजबूर हैं...न कोई अंतिम विदा, ना ही गले लगकर रोने को, कांधा देने को ही अपने । 

ढूंढनी पड़ेंगी हमें खुशियाँ। जब-जब निर्झर आंसूओं में डूबी प्रकृति अपनी नग्नता पर रोती है, सवाल खड़े करती है तो पेडों से गिरते कई-कई रंगों के सूखे पत्ते तक तुरंत ही धरती को रंग-बिरंगे परिधान पहना देते हैं। हर जंगल और पहाण के बीच से एक नदी बहती है, बाहर का रास्ता दिखाती हुई।
अब तो बस इंतजार है  उस दिन का जब बाहर भी बसंत होगा और मन में भी...